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आज सुबह समाचार पत्र पढ़ रहा था तो देखा की विश्व हिन्दू परिषद् ने मांग की है की उसे अयोध्या स्थल में विवादित स्थल की सारी जमीन भगवान् राम के भव्य मंदिर बनाने के लिए चाहिए , और ये भी पढ़ा की सुन्नी वक्फ बोर्ड निश्चित तौर पर सुप्रीम कोर्ट में इस निर्णय के विरोध में जाएगा. इस खबर को पढ़ कर लगा की इस निर्णय से खुश कौन है ? और मैंने अपने आजके पोस्ट का टापिक भी इसी को बनाया है .
जब इस विवाद का इलाहाबाद हाई कोर्ट का निर्णय आया था तो सभी ने बहुत ही सायमं की भाषा का प्रयोग किया था , और उस समय लगा की हम शायद 1992 से आगे, काफी आगे बढ़ गए हैं और हमारी सोच अब काफी परिपक्व हो गयी है , हम अब मंदिर मंदिर से बहुत आगे निकल गए हैं और हमारे लिए बेरोज़गारी , शिक्षा , महंगाई , भ्रष्टाचार इत्यादि विषय ही माने रखते हैं . और सच में ये सोच कर अच्छा भी लगा ,
पर फिर कुछ दिन में ही लगा की क्या मै सही सोच रहा था ?आज न इस फैसले से हिन्दू सम्प्रदाय प्रसन्न और न ही मुस्लिम . हिन्दू कह रहें हैं की वहां पर केवल राम मंदिर ही होना चाहिए क्योंकि कोर्ट ने मान लिया है की यही पर भगवान् राम का जन्म हुआ, मुसलमान कह रहें है के वहां पर मस्जिद तोड़ी गए इस लिए मस्जिद बननी चाहिए और सिर्फ 1/3 का क्या मतलब ?
मै ज्यादा समझदार तो हूँ नहीं , ( आखिर अबोध जो ठहरा ) लेकिन मुझे लगता है की आज हमारे देश की एक बड़ी जनता , जिसमे दोनों ही धर्म के मानने वाले हैं , इस निर्णय के विरुद्ध नहीं है , लेकिन कुछ लोग , जिनका मकसद ही है की इस विवाद को किसी न किसी बहाने जीवित रखा जाए ,इसे सुलझाने नहीं देना चाहते हैं , वो भले ही बहुत छोटी संख्या में हैं पर अपने आपको न्यूज़ में रखना जानते हैं , और इस लिए ये विवाद को जिंदा रखने में सक्षम हैं ,
कहीं पढ़ा था की धर्म अमृत और विष दोनों का काम करता है , धर्म का प्रयोग करके आप अपने आपको हर बुराई से दूर भी रख सकते हैं और धर्म के नाम पर ही किसी की हत्या भी कर सकते हैं जो की सबसे बड़ा पाप है .
मै इश्वर से प्रार्थना करूंगा की हम इस बात को समझे की धर्म लड़ने के लिए नहीं बल्कि जोड़ने के लिए है , मुझे इस बात से कोई खास फर्क नहीं पड़ता के अयोध्या में मंदिर बने या मस्जिद , मुझे इस बात से मतलब है की इस विवाद के चलते कहीं हमारे बीच में विशागमन न हो , हमारे बीच दंगे फसाद न हो , हमारे घर न जलें , कोई बच्चा अनाथ न हो , कोई स्त्री विधवा न हो , किसी मां- बाप को अपने बच्चे को खोना न पड़े , मुझे इस बात से कोई ज्यादा फर्क नहीं पड़ता की अयोध्या में मंदिर बने या मस्जिद , क्योंकि मेरा इश्वर / अल्लाह किसी एक मंदिर या मस्जिद में नहीं बस्ता , वो तो हर दिल में होता है जहाँ उसे सच्चे मन से ढूँढा जाए .
अगर मै ऐसा सोचता हूँ तो क्या गलत सोचता हूँ ये निर्णय मैंने आप ही पर छोड़ा ?
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