एक परदेसी का दर्द
आज फिर उसकी याद बहुत आ रही है, याद तो हर पल ही आती है पर आज कुछ ज्यादा ही आ रही है.
मै अकेला अपने रूम में लेटा हूँ और सोच रहा हूँ की अगर मै घर पर होता तो अब तक मेरे चारो ओर माँ पिताजी, भाई बहिन भतीजे भतीजी, भांजी भांजे, मुझे सारे घेर कर बैठ गए होते, ऐसा तो सदा ही होता था जब मै बीमार पड़ता था, तब तो बीमार पड़ना भी बहुत अच्छा लगता था, की इतने लोग मेरे चारो ओर बैठे हैं, मेरी देख भाल कर रहे हैं पर यहाँ . . . . .
परदेस में कौन किसी को देखता है, आपको खुद ही को देखना पड़ता है, हर दुःख को खुद ही झेलना पड़ता है, किस के पास समय है जो आपको समय दे, सभी ही कमाने के लिए है, अगर कोई आपके पास रहेगा तो उसकी भी उस दिन की सैलरी कट जाएगी, सब ही व्यस्त हैं, यहाँ तो रोना भी खुद ही पड़ता है, और समझाना और बहलाना भी खुद ही को पड़ता है, ऐसे में आप केवल अपनों को याद करके रो लेते हैं,
हम विदेश में रह कर अच्छा कमा रहा हैं ये तो सब ही देखते हैं पर उसके लिए हमें क्या-क्या खोना पड़ता है ये किसी को नहीं दीखता,
अकेलेपन का दर्द कहाँ किसी को समझ में आता है,
मुझे फिर आज अपना घर,अपने लोग बहुत याद आ रहे है, पर बस केवल याद ही कर सकता हूँ, क्योंकि यहाँ पर केवल मै और मेरी तन्हाई है, और अभी तो बहुत दिन मुझे तनहा ही रहना है, अभी तो मेरी छुट्टी में बहुत दिन बाकी है, अभी तो मुझे बहुत दिन अकेले ही रोना है, बस मै और मेरी तन्हाई, और यादें …………
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